Thursday, March 29, 2012
Monday, March 26, 2012
Thursday, March 22, 2012
Yadon Ki Mehak, یادوں کی مہک : (Urdu); Afsana; افسانہ ; Short Story
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Saturday, March 17, 2012
Wednesday, March 14, 2012
Court Martial, کورٹ مارشل : (Urdu/Hindi); Afsancha; Laghu Kahani; افسانچہ
Court Martial, کورٹ مارشل :
(Urdu/Hindi)
Afsancha; Laghu Kahani; افسانچہ
कोर्ट मार्शल
यह एक सची कहानी है. सम्मरी कोर्ट मार्शल के तीन जजों में एक मैं भी था. एक फौजी लेडी डॉक्टर ने हमारे रूबरू खड़े सिख सिपाही के खिलाफ शिकायत दर्ज की थी कि जब वह नहा रही थी तो एक सिख सिपाही ने बाथ रूम की खिड़की से अन्दर झाँका था और वह विश्वास के साथ कह सकती है कि यही वह सिपाही है.
मैं सोच में पड़ गया कि उस की नज़र जब खिड़की की ओर उठ गयी होगी तो वह ज़रूर भोख्लाई होगी ओर स्वाभाविक प्रवृति के कारण उसने पहले अपने नंगे शरीर को ढांपने की कोशिश की होगी. उस के कहने के अनुसार सिपाही देखते ही भाग गया था . डॉक्टर ने तो क्षण भर के लिए ही सिख सिपाही का चेहरा देखा होगा जो अधिकतर दाढ़ी से ढाका छुपा रहता है फिर उसने इतनी ही देर में उस के चेहरे को कैसे याद रखा होगा?
परन्तु यहाँ समस्या पहचान की नहीं थी बल्कि फौजी अफसर और वह भी लेडी अफसर की प्रतिष्ठा की थी . सिख सिपाही चाहे कोई भी हो किसी न किसी को तो सज़ा देनी ही थी. इसलिए तीनों जजों ने एकमत से सिपाही को पंद्रह दिन कैद की सज़ा सुनाई.
मेरी अंतरात्मा आज तक मुझे कचौकती रहती है जबकि इन्साफ फटी पुरानी फाइलों में कब का दम तोड़ चुका है.
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Sunday, March 11, 2012
Mochi Pipla, موچی پپلا : (Urdu); Afsana; افسانہ ; Short Story
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Saturday, March 10, 2012
Prativad, प्रतिवाद : (Hindi); Kahani; Katha; कहानी
Prativad, प्रतिवाद : (Hindi)
Kahani; Katha; कहानी
उस दिन मैं कार से यात्रा कर रहा था. ड्राईवर को इस बात का एहसास था कि मुझे कॉन्फ्रेंस में देर हो रही है.इस लिए वह बहुत तेज़ी से गाड़ी चला रहा था. न जाने क्यों दिन कि शुरूआत उपशगुन से हुई थी. सुबह से ही घर में कुहराम मचा हुआ था. एक ओर बीवी की फरमाईशें ओर दूसरी ओर बच्चों की मांगें. दो चार दिन पहले पत्नी ने घरेलू कामों की लिस्ट थमा दी थी और आज सुबह सवेरे ही हिसाब मांगने लगी. बच्चों की फीस जमा करने की आखरी तारिख भी आज ही थी. यही नहीं मिलोनी की यूनिफार्म भी फट चुकी थी. इधर नौकरानी का पति पोलियोग्रस्त हो कर अस्पताल में भर्ती हो गया था और वह भी एडवांस वेतन मांग रही थी जैसे यह उत्तरदायित्व भी मेरा ही था. यही कारण था कि घर में समाचारपत्र पढ़ने का समय भी नहीं मिला. मैंने समाचारपत्र अपने साथ उठा लिया ताकि रास्ते में पढ़ सकूँ.
संपादकीय पन्ने पर मेरे चहेते जर्नलिस्ट का लेख छपा था. लेख इतना रुचिकर था कि लेखक की उंगलियाँ चूमने को जी चाह रहा था. कितना निडर और निर्भीक पत्रकार था. कितनी सच्चाई थी उस के लेख में. उसने अकेले ही प्रशासन में हर तरफ फैले भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करने का बीड़ा उठाया था. प्रशासन तंत्र की परतों को एक-एक करके वह उधेड़ता चला जा रहा था. मुझे उसकी निडरता और निर्भीकता पर गर्व था.
अन्तर्मन से आवाज़ आई. " अगर ऐसे ही दस पंद्रह कर्तव्यनिष्ट खोजी पत्रकार देश में पैदा हो जाएँ तो देश का भाग्य ही बदल जाए "
तत्पश्चात मैं अपने गिरेबान में झाँकने लगा.
इस बीच एकाएक गाड़ी जे जे कालोनी के पास तीव्र झटके के साथ रुक गयी. झटके के कारण मेरा समाचारपत्र हाथों से छूटकर कार की सीटों के बीच बिखर गया. "क्यों.... क्या हुआ.....? रुक क्यों गए?" समाचारपत्र समेटते हुए मैंने ड्राईवर से पुछा.
"सर गाड़ी के नीचे एक पिल्ला आ कर मर गया."
इतनी देर में सामने से एक बिफरी हुई काली कुतिया दौड़ती हुई चली आई और अपना खूंखार जबड़ा खोलकर श्वेत एम्बेसडर कार पर भोंकने लगी. हमारे इस देश की अफसरशाही में श्वेत एम्बेसडर का खूब प्रचलन है. इन एम्बेसडर कारों के सामने तो बड़े बड़ों की बोलती बंद हो जाती है फिर कुत्तों की क्या मजाल. मुझे यकीन था की कुतिया स्वयं ही थक हार कर चुप हो जाएगी.
"शायद पिल्ले की माँ होगी ?" मैंने ड्राईवर से पुछा मगर उसने सुनी अनसुनी कर दी. इस दरमियान एक पुलिसकर्मी कहीं से आ निकला और सलूट बजा कर कार को आगे बढ़ाने का इशारा करने लगा.
ड्राईवर ने फिर से गाड़ी का इंजन स्टार्ट कर लिया और पहले की भांति ही अपनी गाड़ी दौड़ाने लगा. कुतिया वहीँ उसी स्थान पर भौंकती रह गयी मगर उस फौलादी ढांचे का कुछ नहीं बिगाड़ सकी.
कांफ्रेंस समाप्त होने के बाद दिन के चार बजे जब हम उसी रास्ते से लौट रहे थे तो वही काली कुतिया न जाने कहाँ से फिर उसी स्थान पर प्रकट हो गयी. वह पागलों की तरह लगातार भौंकती और ललकारती हुई फुर्ती से अकस्मात कार के सामने आई. ड्राईवर स्टेरिंग पर नियंत्रण न रख सका और वह कुतिया भी गाड़ी के नीचे आकर लहुलुहान हो गयी.
गाड़ी थोड़ी देर बाद नियंत्रण में आ गयी और अपने आप ही रुक गयी.
वहां कुछ लोग एकत्रित हो गए. मैं गाड़ी से नीचे उतरा. अपने पीछे दृष्टि दौडाई. वहां सड़क पर कुतिया की तड़पती हुई लाश थी, बहता हुआ उसका गर्म गर्म रक्त और क्षतविक्षत अंतड़ियाँ नज़र आ रही थीं. उस के शरीर में अभी भी कंपन था और जबड़े से रक्त बहता चला जा रहा था.
कुछ लोग मेरी और ऐसे देख रहे थे जैसे मैं ही अपराधी हूँ. उनकी आँखों में विरोध की भावना थी. मगर श्वेत एम्बेसडर को देख कर वे चुप हो गए. मैं घबरा कर वापिस अपनी गाड़ी में बैठ गया.
"उन लोगों को ड्राईवर पर गुस्सा आना चाहिए था. मुझ पर क्यों?" कार में बैठ कर मैं अपने आप से पूछता रहा.
" ड्राईवर पर क्यों? कार तो आप की है और फिर जल्दी दौड़ाने का आदेश भी आप का ही था." स्वयं ही उत्तर भी ढूंढ लिया.
क्षण भर के बाद उस काली कुतिया पर, जो एक माँ भी थी, मुझे बहुत तरस आया. उसने अपने बच्चे के मारने वाले के सामने विरोध प्रदर्शन किया था और ऐसा करते हुए अपनी जान भी गंवाई थी. कितनी साहसी माँ थी वह!
"संभवतः उसने हमारी गाड़ी को पहचान लिया होगा." मैंने ड्राईवर से पुछा.
" हाँ साहब ऐसा ही लगता है जानवरों के बारे में यही सुना है कि उनकी याद्दाश्त बहुत तेज़ होती है. उनको थोड़ा सा आघात भी पहुँचाओ तो पलटकर काट लेते हैं. सांपों के बारे में तो मेरी अम्मां कहती थी कि मरते मरते भी वह मरने वाले की तस्वीर अपनी आँखों में उतार लेते हैं और फिर उनके बाल बच्चे उस व्यक्ति से बदला लेते हैं."
भीड़ में से किसी की आवाज़ गूँज उठी, " न जाने किस अंधे ने सुबह सवेरे इसके बच्चे को अपनी मोटर के नीचे रौंद डाला था. तब से बेचारी विक्षिप्त हो गयी थी और दिन भर आने जाने वाली गाड़ियों पर भौंकती फिरती थी."
देखने वाले कुतिया की लाश को देख कर त्राहि त्राहि कर रहे थे.
इस के बावजूद सड़क पर रात भर पहले की भांति ट्रैफिक चलता रहा. सभी अपनी अपनी मंजिल की और तेज़ गति से चले जा रहे थे.
रात भर सड़क पर लाश पड़ी सड़ती रही. यदाकदा गिद्ध और कौए उस में से मांस नोच कर ले जाते. राहगीर लाश की ओर देखना भी गवारा न करते. अपने मुंह को रुमाल से ढांप कर दूसरी ओर देखते और तेज़ तेज़ क़दमों से निकल जाते.
दुसरे दिन म्युनिसिपल कमेटी की कचरा गाड़ी लाश उठा कर ले गयी.
दो दिन पश्चात् समाचार पत्रों में बड़ा ही रोचक समाचार छपा. मेरे निडर, निर्भीक और सत्यनिष्ट पत्रकार ने केंद्रीय मंत्रिमंडल में मंत्री पद की शपथ ली और अब उसी प्रशासन का हिस्सा बन गया था जिसके विरुद्ध वह बरसों से आवाज़ उठाता रहा.
(कहानी संग्रह "चिनार के पंजे " Chandermukhi Prakashan, E-223, Shivaji Marg,Main Rd,Teesra Pusta, Jagjit Nagar, Delhi. tel-9250020816)Also available online.
Tuesday, March 6, 2012
Ehtejaj, احتجاج : (Urdu); Afsana; افسانہ ; Short Story
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Kitabi Prem, کتابی پریم : (Urdu/Hindi); Afsancha; Laghu Kahani; افسانچہ
Kitabi Prem, کتابی پریم :
(Urdu/Hindi)
Afsancha; Laghu Kahani; افسانچہ
किताबी प्रेम
यह कहानी उस ज़माने की है जब न मोबाइल थे और न इन्टरनेट। प्यार को पत्रों के माध्यम से प्रकट किया जाता था। एक दिन तेरह वर्षीय प्रेम अपनी प्रेमिका रजनी को पत्र लिख रहा था कि अचानक मेरी दृष्टि उसपर पड़ी।
"यह तुम क्या नक़ल कर रहे हो? कोई कविता आधि लिख रहे हो क्या?" मैंने प्रश्न किया।
"नहीं भैया, ऐसी बात नहीं है। रजनी भी मेरी तरह पांचवीं में दो बार फ़ैल हो चुकी है। वह भी इसी पुस्तक में से क्रमबद्ध मेरे पत्रों का उत्तर देती है।"
"ओह मैं समझा। इससे बेहतर तो यह है कि टेलीग्राम की तरह तुम केवल नंबर लिख दिया करो और वह उस अंक का पत्र पढ़ लिया करेगी. इतनी मेहनत करने की क्या ज़रुरत है।"
"हाँ भैया तुमने अच्छा सुझाव दिया। मेरा तो इस ओर ध्यान ही नहीं गया।"
उस दिन के पश्चात् इत्र मले पत्रों में केवल यह शब्द नज़र आने लगे।"आँखों से प्यारी रजनी, नंबर सात, तुम्हारा सदा तुम्हारा, प्रेम।"
"मेरे दिल के राजा, नंबर आठ, तुम्हारे चरणों की धूल, रजनी।"
यह सिलसिला तब तक यूँ ही चलता रहा जब तक प्रेम घर से भाग कर दिल्ली की सड़कों पर जेबें कुतरने लगा ओर रजनी पांच हज़ार रुपयों के बदले मालेगांव में अश्लील फिल्मों में अपने शरीर की नुमाइश करने लगी।
उस दिन के पश्चात् इत्र मले पत्रों में केवल यह शब्द नज़र आने लगे।"आँखों से प्यारी रजनी, नंबर सात, तुम्हारा सदा तुम्हारा, प्रेम।"
"मेरे दिल के राजा, नंबर आठ, तुम्हारे चरणों की धूल, रजनी।"
यह सिलसिला तब तक यूँ ही चलता रहा जब तक प्रेम घर से भाग कर दिल्ली की सड़कों पर जेबें कुतरने लगा ओर रजनी पांच हज़ार रुपयों के बदले मालेगांव में अश्लील फिल्मों में अपने शरीर की नुमाइश करने लगी।
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Friday, March 2, 2012
Guarantee, گارنٹی : (Urdu/Hindi); Afsancha; Laghu Kahani; افسانچہ
Guarantee, گارنٹی :
(Urdu/Hindi)
Afsancha; Laghu Kahani; افسانچہ
गारंटी
कल रात जब मैं क्लब से लौट रहा था तो बिरला चौक की रेड लाइट पर अपनी कार कुछ देर के लिए रोकनी पड़ी। अकस्मात फटे पुराने, मैले कुचैले कपडे पहने हुए एक चौदह पंद्रह वर्ष का लड़का दौड़ कर करीब आया और दोनों हाथ फैलाने लगा, "साहब, बहुत भूख लगी है. कुछ पैसा देदो. भगवान आप का भला करेगा।"
साथ वाली सीट पर बैठा मेरा दोस्त झिल्लाया और लड़के से कहने लगा, "कोई काम क्यूँ नहीं करते। तुम लोगों को भीख मांगने की आदत पड गयी है।"
"साहब काम मिलता ही कहाँ है। आप ही मुझे अपने घर में नौकर रख लो. मैं हर काम करने के लिए तैयार हूँ।" उसके चेहरे पर आत्मविश्वास झलक रहा था।
मेरा दोस्त खिसयाना हो कर रह गया।
मैं अपने दोस्त की तरफ मुढ़ा और व्यंगात्मक लहजे में कहने लगा। "हाँ ठीक ही तो कहता है। तुम तो नौकर ढूंढ ही रहे हो। रख लो इसी को नौकर।"
"ना जान ना पहचान। यार कैसे रखूँ इसको नौकर। क्या गारंटी है इसकी? कौन है? कहाँ का है? किसे मालूम?"
"यही तो प्रॉब्लम है यार। इस देश में लाखों लोग ऐसे हैं जिन की कोई गारंटी नहीं दे सकता। फिर वोह भीख न मांगें तो क्या करें?"
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