Wednesday, February 24, 2021

Balayi Yaaft;उत्कोच;بالائی یافت ; Ministory;लघु कहानी;افسانچہ

Balayi Yaaft;उत्कोच;بالائی یافت 
Ministory;लघु कहानी;افسانچہ 

उत्कोच 

एक दिन वह मुझे ज़बरदस्ती अपने दफ्तर ले गया जो एक बैरक जैसे लम्बे मकान में स्थित था। वहां का वातावरण देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। उसने दो-चार अगरबत्तियां जलाकर दीवार पर टंगे हुए देवताओं के चित्रों के सामने कुछ मन्त्रों का जाप किया और फिर आराम से अपनी कुर्सी पर विराजमान हुआ। कुछ समय के बाद बाहर एक के बाद एक ट्रक रुकते रहे, ट्रक का ड्राइवर उसके कमरे में चला आता, कुछ काग़ज़ मेज़ पर रख देता जिसके नीचे रुपयों से भरा लिफ़ाफ़ा होता और ऊपर एक व्हिस्की की बोतल पेपर वेट के बदले रख दी जाती। बाहर से किसी कर्मचारी की आवाज़ आती, "सर माल उतरवा दूँ?" वह जवाब देता, "ठीक है।" और फिर मज़दूर गेहूं या चावल की बोरियां गोदामों में रख देते। 
वह भारतीय खाद्य निगम का कर्मचारी था। उसका काम ट्रकों में लाये गए अनाज की क्वॉलिटी चेक करना और फिर उसको गोदामों में ढंग से रखवाना था। मगर वह ऐसा कुछ भी नहीं करता था। केवल मेज़ पर रखे हुए कागज़ों, लिफ़ाफ़े के वज़न और बोतल पर नज़र डाल कर बाहर खड़े मातहतों को हाथ के इशारे से हुकुम देने पर सतुष्ट होता।"
इसी दौरान उसने बाजार से तली हुई मछली मंगवाई और फिर दो गिलासों  में मदिरा उड़ेल कर मुझ से कहा, "लीजिये थोड़ी बहुत मदिरा का आनंद लीजिये।" मैंने केवल मछली के कुछ टुकड़े खाये तथा दफ्तर में शराब के सेवन करने से साफ़ इंकार किया। अंततः उसने सारी बोतलें और कागज़ लोहे की अलमारी में रख दिए, रुपयों भरे लिफ़ाफ़ों को जेब में डाल दिया और फिर घर की तरफ चल दिया। घर पहुँचते ही उसने सारे लिफ़ाफ़े अपनी धर्म पत्नी को दे दिए जिसने मुस्कराहट बिखेरते हुए उन्हें अपने ब्लाउज के अंदर सुरक्षित किया। 
रात को जब मैं और मेरी पत्नी उसकी फेमिली के साथ डाइनिंग टेबल पर बैठ गए तो मैं गहरी सोच में पड़ गया। "उसकी पत्नी जब मेरी पत्नी, जो उसकी सहेली थी, के सामने उपनी दौलत से प्राप्त की हुई वस्तुओं और गहनों का प्रदर्शन करती होगी तो मेरी पत्नी पर क्या गुज़रती होगी। वह सोचती होगी कि उसकी क़िस्मत फूट गई थी जब उसने इंडियन पोस्टल सर्विस के अफसर से शादी कर ली थी। इससे बेहतर था कि भारतीय खाद्य निगम के किसी क्लर्क से विवाह किया होता।" तथापि मुझे इस बात का संतोष था की हम दोनों अलग-अलग शहरों में रहते हैं और हमारी धर्म पत्नियां कभी कभार ही आपस में मिलती हैं। 
लगभग दो वर्ष यूँ ही बीत गए। एक दिन दोनों हमारे घर आये। अभिवादन के बाद वह कहने लगा, "भाई साहब, मैं आजकल बहुत परेशान हूँ। मेरा बेटा पढ़ाई की तरफ कुछ ध्यान ही नहीं देता। मेरी इच्छा है कि वह भी आपकी तरह इंडियन सिविल सर्विसेज की परीक्षा पास करे। एक ही तो बेटा है हमारा। मैं चाहता हूँ कि आप उसको कुछ काउंसलिंग करें। वह आप से  प्रभावित है और आपकी बात अवश्य मान ले गा।"
"भाई यह तो आप का कृपा है। परन्तु आप उसे अपने ही दफ्तर में क्यों नहीं लगाते हैं। मुझे जहाँ तक याद है आप ने कई बार मेरी नौकरी का मज़ाक उड़ा कर कहा था, "इतना परिश्रम करके आपको क्या मिला? मेरी कमाई तो आपकी आय से कई गुना अधिक है।"
"नहीं साहब कमाई ही सब कुछ नहीं होती, समाज में प्रतिष्ठा भी कोई चीज़ होती है।"
"मैंने यही बात कई बार कही थी मगर आप मानने से इंकार करते थे और आग्रह करते थे कि जीवन में दौलत ही सब कुछ है।"
वह स्वयं को तुच्छ मेहसूस करने लगा और उसको उत्तर देने के लिए शब्द ही नहीं मिल रहे थे। 


 

5 comments:

  1. Sir ye afsancha b apni misal ap hy or aj kal ki socity ka ak krwa such hy log pasy ko he sub Khuch smjh lyte hain

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  2. Sir ye afsancha b apni misal ap hy or aj kal ki socity ka ak krwa such hy log pasy ko he sub Khuch smjh lyte hain

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