Tuesday, February 23, 2021

Nazrana; नज़राना ; نذرانہ ;Ministory ; लघु कहानी ;افسانچہ

Nazrana; नज़राना ; نذرانہ  
Ministory ; लघु कहानी ;افسانچہ 

नज़राना 

यह उन दिनों की बात है जब मैं सीनियर सुपरिंटेंडेंट पोस्ट ऑफिसिज़ था। एक मुख्य डाकखाने का निरीक्षण करते समय वहां के कर्मचारियों ने शिकायत की कि उनकी संख्या के हिसाब से ऑफिस में जगह कम पड़  रही है और मालिक मकान दो और कमरे देने को तैयार है यदि उस का किराया बढ़ाया जाये। मैंने इस बारे में मकान मालिक से बात की मगर वापस हेड क्वार्टर आकर भूल गया। छे महीने बाद दोबारा निरीक्षण के लिए जाना पड़ा और मकान मालिक से फिर इसी बात को लेकर सामना हुआ। मकान मालिक को संदेह ही नही बल्कि विश्वास हो गया कि मैंने काम मैं इसलिए टालमटोल किया क्यूंकि उसने मुझे मेरा हिस्सा नहीं पहुँचाया हालाँकि विलंब का कारण मेरी निजी परेशानियां थीं। 
दुसरे दिन मकान मालिक, जो स्थानीय हाईकोर्ट में जज था, मेरे घर पर आ धमका। बैठा और मेरे साथ इस सन्दर्भ में बातचीत कर ली। फिर उसने अपनी जेब में हाथ डाल कर एक लिफ़ाफ़ा निकाला और मुझे पेश करने की कोशिश की।  लिफ़ाफ़े में रुपयों का बंडल साफ़ नज़र आ रहा था। 
"यह क्या है?" मैंने देखते ही प्रश्न किया। 
"सर, कुछ नहीं, मेरी तरफ से तुच्छ सा नज़राना है।" उसने खिस्यानी सी हंसी हंस कर उत्तर दिया। 
इतने समय में मेरी पत्नी चाय लेकर अंदर आई। मैंने उसे दरवाज़े पर ही  रोक लिया। "नहीं चाय वापस ले जाओ। ही डज़ नॉट डिज़र्व टी ऑफ़ मय हाउस।"
वह हैरान हो गई क्यूंकि थोड़ी देर पहले मैंने उससे कहा था कि मेहमान हाईकोर्ट का जज है इसलिए अच्छी सी चाय बना कर ले आना। जज साहब अचंभे में पड़ गया कि यह क्या हो रहा है। कहने लगा, "सर आप बुरा मान गए।"
"बुरा मानने की ही तो बात है। आपने  मुंह पर तमांचा मार दिया। आपको शायद यह ख्याल है कि आप जज हैं इसलिए किसी का भी अपमान कर सकते हैं। मगर आप यह नहीं जानते हैं कि मैं किस इलाक़े में पला बड़ा हूँ। मैं आप की ऐसी दुर्गत करों गा कि कोर्ट में दरख्वास्त देने के योग्य भी नहीं रहेंगे।" मेरे गुस्से ने सीमाएं पार कर दीं। 
वह समझ गया। लिफ़ाफ़ा जेब में वापस रख लिया और बहुत ही सौम्यता से माफ़ी मांग ली। "सर,मैं बहुत शर्मिंदा हूँ और आप से क्षमा चाहता हूँ।"
मैंने भी अपने स्वर में नरमी लाकर कह दिया, "कम से कम यहाँ आने से  पहले किसी से मेरे बारे में पुछ तो लिया होता कि मैं घूस लेता हूँ या नहीं।" 
"सर आज तक जितने अफसरों से वास्ता पड़ा सभी ने यही कहा कि वह सत्यवादी हैं मगर रुपये के बग़ैर कभी किसी ने काम नहीं किया। अब आप ही बताईए कि किसी के माथे पर यह तो नहीं लिखा होता है कि वह भ्रष्ट है या नहीं।"
उस का उत्तर सुन कर मेरा गुस्सा ठंडा पड़ गया और मैंने अपनी पत्नी को दोबारा चाय लाने के लिए आवाज़ लगाई।                 


 

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