Yadon Ke Saye;यादों के साये;یادوں کے سایے
افسانچہ ;लघु कहानी; Ministory.
यादों के साये
"पापा आपने कहा था कि कश्मीर पहुँचते ही आप हमें अपना पैतृक घर दिखाएंगे।" होटल में सामान रखते ही मेरी बेटी ने प्रश्न किया।
"हाँ क्यों नहीं। पहले नहा-धो लो, लंच करलो फिर चलेंगे। मैंने तस्सली दी।
"लग-भग चार बजे हम अपने पुरखों का मकान देखने गए। मैं ने टैक्सी ड्राइवर को स्थान के बारे में समझाया लेकिन वह ना जाने किन रास्तों से टैक्सी भगाता रहा जो मैं ने पहले कभी नहीं देखे थे। इसी बीच मेरे मन में भिन्न-भिन्न शंकाएं उत्पन्न हो रही थीं। पलायन किये हुए पचीस वर्ष बीत गए थे। दो चार वर्ष आस लगाए बैठा रहा कि शीघ्र ही वापस जाने का अवसर मिलेगा परन्तु समय के साथ आशाओं के दीप बुझते चले गए और परिणाम स्वरुप मकान बेचना पड़ा। अब क्या मालूम किस हालत में होगा? होगा भी या नहीं? हो सकता है कि खरीदने वाले ने उसकी मरम्मत करवाई हो या फिर गिरा कर नया मकान बनाया हो।
टैक्सी ड्राइवर ने एक स्थान पर टैक्सी रोक कर कहा, "बाबू जी, उतर जाईये यही वह जगह है जहाँ आप को जाना है।"
मैं हैरानी से अपने इर्द-गिर्द देखने लगा। कोई भी चीज़ देखी भाली नहीं लग रही थी। फिर सामने एक दूकानदार से पुछा, "भाई साहब, यहाँ पर वकीलों का एक बहुत बड़ा मकान सड़क के किनारे होता था।"
"अरे साहब किस ज़माने की बात कर रहे हो वह मकान तो जीर्ण-शीर्ण हो चूका था। उसे तो गिरा दिया गया। यह सामने जो मॉल नज़र आ रहा है उसी ज़मीन पर तो खड़ा है।
मैं वापस टैक्सी में बैठ गया और ड्राइवर को गाड़ी चलाने के लिए कहा।
मेरी बेटी हैरान थी कि मुझे अचानक क्या हो गया। पूछने लगी. "पापा पूर्वजों का मकान देखे बिना ही जाएं गे क्या?"
मैं अवाक उसे देखता रहा मगर मेरे आँसू मेरे दिल में उठ रहे तूफ़ान की चुगली कर रहे थे।
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