Ek Aur Inquilab;एक और इन्क्विलाब;
ایک اور انقلاب
Ministory;लघु कहानी;افسانچہ
एक और इन्क्विलाब
तहरीक ज़ोर पकड़ती जा रही थी। नेता ने जनता की दुखती रग पर हाथ रख कर ऐलान कर दिया "भाइयो और बहनों! सर्कार ने कंपनियों के साथ साज़ बाज़ करके बिजली की दरों में अप्रत्याशित बढ़ोतरी की है। जनता पहले ही से महंगाई की मार झेल रही है। प्याज़, टमाटर, सब्ज़ी सब की कीमतें आसमान को छू रही हैं। बिजली महंगी,पानी महंगा, खाने पीने की चीज़ें महंगी, पेट्रोल, डीज़ल और केरोसिन महंगा, सब कुछ महंगा हो गया है। केवल इंसान सस्ता हो गया है। और सत्ता में बैठे लोग हैं कि घोटालों पर घोटाले किये जा रहे हैं। हम ने कई बार गोहार लगाई मगर उनके कान पर जूँ तक न रेंगी। अब लगता है कि हमें ही कुछ करना पड़ेगा।
"ज़रूर, ज़रूर हमें ही कुछ करना पड़ेगा। हम सब तैयार हैं।" दर्शकों ने अपनी प्रतिक्रिया प्रकट की।
"भाइयो और बहनो। आज के बाद कोई भी आदमी बिजली का बिल नहीं भरेगा जब तक सर्कार दाम आधे न कर दे।"
"इन्किलाब ज़िंदा बाद. ..."भीड़ में से नारे बुलंद होते गए और थोड़ी देर के बाद लोग तितर बितर हो गए।
महीने भर के बाद बिजली के कर्मचारियों ने गरीब कॉलोनियों में बिजली के कनेक्शन काटना शरू कर दिया। कॉलोनियों में हर तरफ अफरातफरी मच गयी। इस लिए दोबारा जलसे का आयोजन किया गया। नेता फिर से गरजने लगा, "भाइयो और बहनो ! हमारे घरों में अँधेरा छा गया है। सर्कार टस से मस नहीं हो रही है। आखिर कब तक हम सर्कार की उपेक्षा बरदाश्त करेंगे। समय आगया है कि इनको सबक़ सिखाया जाये। यह सब चोर और लुटेरे हैं। कंपनियों के साथ इनकी मिली भुगत है ये कंपनी वाले हमारा खून चूस कर करोड़ों के मालिक बन चुके हैं जबकि ग़रीबों के घरों में बिजली नहीं है। चूल्हे आग ना घड़े पानी। पानी के बदले आंसू बह रहे हैं। हमने फैसला कर लिया है कि हम सब कॉलोनियों में जाकर खुद ही बिजली के कनेक्शन जोड़ लेंगे और देखेंगे कि कौन माई का लाल हमें रोकेगा।
फिर लोग ग़रीब कॉलोनियों में खम्बों पर चढ़ कर बिजली के कनेक्शन जोड़ने लगे। क़ानून की धज्जियां उड़ाई गई। सर्कार तमाशाई बनकर देखती रही क्यूंकि कुछ महीनों के बाद चुनाव के दौरान इन्हीं बस्तियों में वोट मांगने जाना था।
चुनाव के बाद इन्किलाब आया। अराजकता का हामी नेता क़ानून तोड़ने वाले संगी साथियों समेत विधान सभा की कुर्सियों पर बिराजमान होकर नए क़ानून बनाने लगा।
नए क़ानून। नए अधिनियम। लेकिन फिर भी अव्यवस्था बरक़रार थी।
एक बूढ़ा मज़लूम शहरी, जिसने आज़ादी से पहले कई हसीन सपने देखे थे, अब इस तथाकथित लोकशाही से ही निराश हुआ। वह अपने दिल में सोचने लगा, "इस देश का तो भगवान् ही रक्षक है। ना जाने कब फिर कोई नेता इन नए क़ानूनों और अधिनियमों की धज्जियाँ उड़ाने के लिए सामने आये गा।
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