Mulazmat; मुलाज़मत; ملازمت
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मुलाज़मत
कश्मीर में मिलिटेंसी के कारण मुझे गेस्ट हाउस में अकेले रहना पड़ता था।
मेरी विवाहित बहन के घर की हालत अच्छी नहीं थी क्यूंकि उसका पति दिहाड़ी पर काम करता था और उसको स्वयं नौकरी नहीं मिल रही थी। एक रोज़ उस ने गेस्ट हाउस के केयर टेकर से इस बारे में बात की।
केयर टेकर हैरान होकर बोला, "अगर आप ऐसी मुसीबत में हैं तो अपने भाई से क्यों नहीं कहतीं। आपके भाई साहब के लिए तो यह बायें हाथ का खेल है। मैं इस डिपार्टमेंट का मामूली सा मुलाज़िम हूँ। मैंने पिछले पांच सालों में तीन रिश्तेदारों की नौकरी लगवा दी। आपका भाई आपको नौकरी नहीं दिलवा सकता है क्या?"
उस दिन बहन ने मुझसे नौकरी के बारे में अनुरोध किया मगर मैंने सुनी अन सुनी कर दी। अलबत्ता उसकी हालत को देख कर रात भर नींद नहीं आयी। सोचता रहा कि भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद ने समाज को इतना प्रभावित किया है कि एम् ए पास होने के बावजूद उससे नौकरी नहीं मिल रही है और मैं हूँ कि ईमानदारी का दम भर रहा हूँ। आखिर मेरी ईमानदारी से समाज तो बदल नहीं सकता है। फिर फैसला किया की कल सुबह उठकर इस बारे में कोई ठोस क़दम उठा लूंगा।
सुबह सवेरे नींद से जागा तो दिमाग में ताज़गी सी महसूस कर रहा था। अचानक कल रात वाली बात याद आगई। लेकिन जल्दी ही अंतरात्मा की आवाज़ सुनाई दी, "सवाल उसकी नौकरी का नहीं है बल्कि उस ईमानदारी की ईमारत का है जो तुमने पिछले तीस साल से खड़ी कर रखी है। क्या तुम उसको एक पल में गिराना चाहते हो क्यूंकि इस समय तुम्हारी बहन की समस्या है। वास्तव में इंसान की परीक्षा उस समय ली जाती है जब उसका अपना खून उसके सामने फरयादी बन कर खड़ा होता है।"
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