Jantar Mantar; जंत्र मंत्र; جنتر منتر
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जंत्र मंत्र
शारदा की ज़िन्दगी कठिनाईयों की खुली पुस्तक थी। दस बरस की उम्र में शादी हो गई। पति का साथ केवल चार साल रहा। उसके बाद तमाम उम्र तपस्वी ज़िन्दगी बसर करने पर मजबूर हो गई। विधवापन के कारण वह उन क्षणों का मूल्य जानती थी जो पति पत्नी एक साथ हंसी ख़ुशी गुज़ारते हैं। यही कारण था कि उसे उन जोड़ों पर तरस आता था जो बात बात पर आपस में लड़ते झगड़ते थे। वह चाहती थी कि किसी भी स्त्री का वैवाहिक जीवन अस्तव्यस्त ना हो। उत्पीड़ित स्त्रियां उसके पास परामर्श लेने के लिए आतीं और संतुष्ट होकर चली जातीं।
एक रोज़ एक नव विवाहित महिला ने अपना दुखड़ा सुनाया कि उसकी सास और सुसर उठते बैठते उससे कोसते रहते हैं। शारदा चूल्हे के सामने बैठी ध्यान पूर्वक सुनती रही। उसने चूल्हे में से एक जलती हुई लकड़ी निकाली, उसकी छाल का एक छोटा सा टुकड़ा चाकू से छील लिया, जल रहे सिरे को पानी में डबोया, उसपर दो चार फूँक मार दिए और फिर उस नारी को दे दिया।
"तुम इससे हमेशा अपने पास रख लेना। जब भी कोई तुम्हारे साथ लड़ने झगड़ने पर उतर आये तुम जल्दी से इस को दांतों तले दबा लेना और तब तक नहीं छोड़ना जब तक सामने वाला मनुष्य शांत ना हो जाये।"
महिला ख़ुशी ख़ुशी अपने घर चली गई और फिर शारदा की बताए हुए उपाय पर पूरी तरह से अमल करने लगी। समय गुज़रने के साथ साथ उसे एहसास हुआ कि सास सुसर दोनों धीरे धीरे शांत होने लगे हैं और अब घर में लड़ाई झगड़ा नहीं हो रहा है।
महीने भर के बाद वह धन्यवाद देने के लिए शारदा के पास आई और कहने लगी, "मौसी मैं आपका शुक्रिया करने आई हूँ। आपका वह जंत्र बहुत लाभदायक साबित हुआ।" फिर अपनी जिज्ञासा दूर करने के लिए पूछ बैठी, "मौसी मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आप ने ईंधन की मामूली सी लकड़ी में इतनी शक्ति कैसे भर ली कि उसने सारे घर का माहौल ही बदल डाला।"
शारदा ने हलकी सी मुस्कराहट बिखेरते हुए उत्तर दिया। "बेटी मैं कोई जंत्र मंत्र नहीं जानती और ना ही मैं ने उस लकड़ी को दम किया था। इतना समझ लो कि झगडे के लिए दो पक्षों का होना आवश्यक है। इनमें से अगर एक पक्ष ख़ामोश रहे तो दूसरा स्वयं ही थक हार कर हथ्यार डाल देता है और फिर लड़ाई खुदबखुद बंद हो जाती है।"
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