Haram Ki Kamai;हराम की कमाई;حرام کی کمائی
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हराम की कमाई
बहुत समय पहले मुझे एक बेरोज़गार कवि का पत्र मिला। लिखा था। "मैं एक कवि हूँ। आप की रचनाओं का मैं प्रशंसक हूँ। मेरे पिता जी आपकी संस्था में कार्यरत थे मगर जवानी ही में देहांत हो गया। ऐसी स्तिथि में विधिक उत्तराधिकारियों में से किसी एक को, जो योग्य हो, नौकरी मिलने का अधिकार होता है। बदक़िस्मती से उस समय मेरी उम्र दस वर्ष की थी और मेरे दुसरे भाई बहन मुझ से छोटे थे। माँ ने नौकरी के लिए आवेदन करना उचित ना समझा क्यूंकि वह अनपढ़ थी। इसलिए वह मेरे वयस्क होने का इंतज़ार करती रही। एम् ए करने के बाद मैंने नौकरी के लिए प्रार्थना पत्र भेज दिया मगर वह अस्वीकार हुआ। किसी ने मेरी न सुनी। एक समय ऐसा आया कि मिनिस्टर और मेम्बर बोर्ड दोनों मेरे ही धर्म के थे और मुझे उनसे बहुत उम्मीद थी फिर भी कोई सुनवाई ना हुई। सुना है आप साहित्य प्रेमी और दीन-दयाल हैं इसलिए आप को यह पत्र लिखने की हिम्मत कर रहा हूँ। मुझे पूरी आशा है कि आप मुझे निराश नहीं करेंगे।
वास्तव में इससे पहले मेरी ऐसी बुरी हालत न थी। मैं भारतीय जीवन बीमा निगम में एजेंट था। महीने के दस-बारह हज़ार कमीशन के रूप में कमाता था। आर्थिक स्थिरता को देख कर मैंने अपने टूटे-फूटे पैतृक मकान को नए सिरे से तामीर करने के लिए एल आई सी से ऋण ले लिया। हर महीने पांच हज़ार रुपए की क़िस्त मूलधन और बियाज के तौर पर भुगतान करना पड़ता है। दुर्भाग्य से एक दिन अचानक स्थानीय मौलवी से मुलाक़ात हुई। उसको न जाने कैसे मेरे व्यवसाय के बारे में पता चला था। उसने मुझे चेतावनी दी कि जो कुछ भी मैं कमीशन के तौर पर कमा लेता हूँ वह हराम की कमाई है। मुझे उसकी बातों पर विश्वास न हुआ। इसलिए पुष्टि के लिए दिल्ली के एक मौलाना के साथ संपर्क किया। उसने भी मौलवी साहब का समर्थन किया। नतीजे में मुझे एजेंसी का काम छोड़ना पड़ा। उसके बाद कहीं कोई नौकरी नहीं मिली। बस दिन में दस ग्यारह ट्यूशन पढ़ा कर जैसे तैसे बीवी और चार बच्चों का पेट पालता हूँ। दूसरी तरफ ऋण की क़िस्तें भी भरनी पड़ती हैं। समझ में नहीं आरहा है कि जीवनयापन कैसे कर सकूं गा।
मैं चिंता में डूब गया। बहुत सोच विचार के बाद उत्तर लिखा, "भाई इम्तियाज़ अली, इस मामले में डिपार्टमेंट की कोई ग़लती नहीं बल्कि सारा दोष आप की माता जी का है। ऐसे मामलात में अगर वारिस पांच वर्ष के अंदर-अंदर प्रार्थना पत्र नहीं देता है तो वह अपना अधिकार खो देता है। उसके बाद भी जो कुछ तुम ने किया जल्दबाज़ी में किया। अगर बीमा कंपनियों की कमाई पाप की कमाई होती तो इस्लामी देशों में उनका अस्तित्व ना होता और हमारे अपने देश में हज़ारों मुस्सलमान इस व्यवसाय से जुड़े न होते। बीमा कंपनी जो वादा करती है क्या वह उससे पूरा नहीं करती? रही बात ब्याज की, बीमा कंपनी की कमाई और बैंकों की कमाई में कोई फ़र्क़ नहीं। अगर बैंकों की कमाई जायज़ हो सकती है तो फिर इन्शुरन्स कंपनियों की कमाई क्यों नहीं? अगर आप इस समस्या पर अधिक विस्तार में सोचेंगे तो जो क़िस्तें आप मकान के ऋण के तौर पर देते हैं. क्या उनमें सूद का अंश नहीं होता है? भाई मेरे, आज पूंजीवादी उपभोक्तावादी समाज इन्हीं भैसाखियों पर खड़ा है जिस से कोई मनुष्य बच नहीं सकता। यह बात सच है कि इस्लाम में खून पसीने की कमाई को प्राथमिकता दी गयी है लेकिन मौलवी साहब ही पर नज़र डालो वह अपनी रोज़ी रोटी कमाने की खातिर कितना खून पसीना बहाता है?"
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