Puja Ka Chanda;पूजा का दान;پوجا کا چندہ
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पूजा का दान
विजय दशमी के दिन थे। मैं अगरतला में आराम से घर पर सो रहा था कि सुबह सवेरे दरवाज़े पर दस्तक हुई। मैंने आँखें मूंदते हुए पुछा, "कौन"
"हम हैं सर........दरवाज़ा खोलो। दुर्गा पूजा के लिए दान चाहिए।" बाहर से स्थानीय यूनियन के सेक्रेटरी की आवाज़ सुनाई दी। उसके साथ यूनियन के तीन और सदस्य थे। मैंने दरवाज़ा खोला और उनको ड्राइंग रूम में बिठाया। फिर स्वयं उनके सामने बैठ गया।
"सर, दुर्गा पूजा के लिए कुछ दान दे दीजिए। इस साल तो हम बहुत बड़ा पंडाल बनवा रहे हैं।"
"कामरेड चटर्जी, तुम तो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट हो। इस राज्य की सर्कार भी कम्युनिस्ट है। फिर यह पूजा पंडाल का क्या चक्कर है?" मुझसे पूछे बिना रहा नहीं गया।
वह खिस्यानी हंसी हंस दिया और फिर एक हज़ार रुपए लेकर चल दिया। अभी एक घंटा भी न गुज़रा था कि दरवाज़े पर दुबारा दस्तक हुई। अबतक मेरा बेटा भी जाग चुका था। उसने झट से दरवाज़ा खोल दिया।
"अंकल हैं ? उनसे कह दो कि मोहले में पंडाल बनाने के लिए दान चाहिए।" एक लड़के ने मेरे बेटे को संबोधित करके कहा।
इस दौरान मैं दरवाज़े के पास आ चूका था। मोहल्ले के पांच छे लड़के रसीद बुक लेकर दरवाज़े के बाहर खड़े थे।
मैंने पांच सौ रुपए निकाल कर दे दिए और रसीद ले ली। मेरा बेटा हैरानी से मुझे तक रहा था। उसे यक़ीन ही नहीं हो रहा था कि मैंने पूजा के लिया दान दे दिया। अंततः पूछ बैठा, "पापा, आप तो नास्तिक हैं। देवी देवताओँ पर यक़ीन ही नहीं करते, फिर इतने सारे रुपये किस लिए दिये?"
"बेटे, यक़ीन तो मैं अब भी नहीं करता पर मनुष्य सामूहिक बाध्यता के सामने कभी विवश हो जाता है। यह मांगने वाले कौन से देवी भक्त हैं। इससे पहले जो चंदा ले गए कम्युनिस्ट थे और यह जो अभी आए थे वे सब मोहल्ले के आवारा लड़के हैं। अगर दान ना दूँ तो यह लोग किसी ना किसी तरीके से हमें हानि पुहंचायें गे। कुछ नहीं तो तुम लोगों को ही परेशान कर देंगे। इनको भी कहाँ ये सारे रुपए देवी के पंडाल पर खर्च करने हैं। थोड़े बहुत खर्च कर लेंगे, बाक़ी जो रुपए बचेंगे उसकी रात में दारू पियेंगे। देवी देवताओं का तो बस बहाना है।"
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