Ahde Hazir Ka Farhaad;नवीन काल का फरहाद
عہد حاظر کا فرہاد
Afsancha; लघु कहानी ;افسانچہ
नवीन काल का फरहाद
मांझी के नगर से अस्पताल 55 किलोमीटर दूर था मगर पहाड़ी रास्ते से केवल 15 किलोमीटर रह जाता था। पर्वतीय मार्ग से उसने यह दूरी पैदल तय कर ली। कंधे पर कराहती हुई उस की ज़ख़्मी धर्मपत्नी थी जिसकी सांसें उखड रही थीं। वह जैसे गया वैसे ही लौट आया। फ़र्क़ केवल इतना था कि वापसी पर फाल्गुनी कफ़न में लिपटी हुई थी।
उसने संकल्प लिया कि वह पर्वत काट कर छोटे नगर और शहर के बीच रास्ता निकाले गा। दुसरे दिन वह उठा और हथोड़ा, छेनी और टोकरा लेकर चल पड़ा। बाईस वर्ष वह हर दिन धरती का कुछ हिस्सा समतल कर लेता, पर्वत काटता, गहरे गड्डे भर देता और बड़े बड़े पत्थरों को कूट कर उन्हें समतल की हुई ज़मीन पर बिछा देता। गांव के लोग उसे बावला समझने लगे। धीरे धीरे सड़क आगे बढ़ती गयी और तमाशा देखने वालों की भीड़ कम होती गई। फिर एक दिन ऐसा आया कि पर्वतीय सड़क तैयार हो गई जिस पर कंकड़ बिछे हुए थे और बेल गाड़िया तथा अन्य परिवहन के साधन आसानी से चल रहे थे।
उस दिन मांझी बहुत प्रसन्न हुआ। वह घर में जाकर अपनी अर्धांग्नी के फोटो से बातें करने लगा, "फाल्गुनी, मैं तुम्हारी ज़िन्दगी तो बचा ना पाया मगर अब और किसी की ज़िन्दगी नष्ट नहीं होगी।"
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