Kaudi Ke Teen Teen;कौड़ी के तीन तीन;
کوڑی کے تین تین
Afsancha;लघु कहानी;افسانچہ
कौड़ी के तीन तीन
गरीबों की समस्याएं भी विचित्र होती हैं। मेरे फूफा जी श्रीनगर से साठ किलोमीटर दूर रहते थे। उनके जन्म दिन पर पिता जी उन्हें इक्यावन रुपए शगुन के तौर पर मेरे हाथ भेजना चाहते थे। एक दिन पहले दफ्तर जाते समय उन्होंने इकहत्तर रुपए मेरे हाथ में यह कहकर थमा दिए कि इक्यावन रुपए फूफा जी को देना और बीस रुपए बस में आने जाने का किराया। उस दिन मैं रात गए घर लौट आया कि रास्ते में एक चटाई विक्रेता मिल गया जिस के सिर पर केवल तीन घास की चटाइयां (वगुव) बची थीं। यह चटाइयां अत्यधिक ठंड से बचने के लिए बहुत लाभदायक होती हैं। मैंने यूँही क़ीमत पूछी तो उसने एक की क़ीमत सौ रुपए बताई और तीन ढाई सौ रुपए में देने को तैयार हो गया। मैंने कहा कि मेरे पास केवल सत्तर रुपए हैं, अगर तीनों दोगे तो खरीद लूँ गा। बहुत भाव-ताव के बाद वह मान गया और मैं तीनों चटाइयां लेकर जोशपूर्ण घर पहुँच गया। सोचा था पिता जी इतनी सस्ती चटाइयां देखकर बहुत प्रसन्न होंगे मगर वह तो आग बबूला हो गए। चूँकि महीना समाप्त होने में अभी दो दिन बाक़ी थे, उनके पास बस यही इकहत्तर रूपए बचे थे और उन्हें किसी से उधार लेना गवारा न था।
दुसरे रोज़ प्रातः उठ कर ना जाने कहाँ से वह लाचारी में सत्तर रुपए उधार ले कर आए और मेरे हवाले कर दिए। उनके चेहरे पर सतत क्रोध और उदासी देख कर मुझे शर्म महसूस हो रही थी और एक कश्मीरी कहावत याद आ रही थी, 'हारि हुस करि क्या हारि रुस' (कौड़ी के सब जहाँ में नक़्शो नगीन हैं. कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन तीन हैं [नज़ीर ])
No comments:
Post a Comment