Wednesday, April 22, 2020

Ida'apasand; ادعا پسند ;मिथ्याभिमानी; Afsancha;लघु कहानी;افسانچہ

Ida'apasand; ادعا پسند ;मिथ्याभिमानी
 Afsancha;लघु कहानी;افسانچہ 

मिथ्याभिमानी
जिन दिनों मैं छुट्टियाँ मनाने श्रीनगर गया था मेरे मित्रों ने शर्त लगाई कि एक मिथ्यभिमानी बहरूपिये को वश में करके दिखाओ तो जानें। ऊपरी आमदनी के कारण मैं सुपरिधानित भी था और विनीत भी। 
उधर बहरूपिये ने अपना नाम, वेशभूषा, धर्म और बलाघात सब कुछ बदल डाला था। पहली मुलाक़ात में उसने अपना परिचय दे दिया, "हेलो, आई ऍम डी के जॉन, ए फ्री लांसर।" इतना तो मुझे पता चला था कि उसका असली नाम द्वारिका नाथ जान है, नगर के अंदरूनी इलाक़े में रहता है और एक साधारण अंग्रेजी दैनिक का रिपोर्टर है। मैंने उत्तर दिया, "ओह आई सी, मय नेम इज़ लक्ष्मण बुड़शाह, कल ही बैंगलोर से आया हूँ। वहां पर मेरी बहुत बड़ी लेदर गुड्स की फैक्ट्री है। यहाँ बिज़नेस के सिलसिले में आया हूँ। वैसे बाई द वे आप क्या करते हैं?" मैंने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया। "जस्ट ऐ फ्री लांसर।"
"तब तो आप मेरे काम के आदमी निकले। आई एम लुकिंग फॉर ए पी आर ओ इन मय कंपनी।"
उसके बाद वह मुझे 'सर, सर' करता रहा और साये की तरह मेरा पीछा करता रहा जब तक मैंने निर्दिष्ट दिन दिल्ली की फ्लाइट पकड़ ली और उसे विदा हुआ। वह एयरपोर्ट पर बाज़ू हिलता रह गया।                 

 

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