Budhape Ka Sahara:بڑھاپے کا سہارا
बुढ़ापे का सहारा
Afsancha;लघु कहानी;افسانچہ
बुढ़ापे का सहारा
युवावस्था में दोनों पति पत्नी लड़के की कामना में एक के बाद एक बच्चे पैदा करते रहे। बेटा तो पैदा हुआ नहीं परन्तु तीन लड़कियों ने जन्म लिया जिनमें से एक पोलियो ग्रसित होने के कारण विकलांग थी। ज़िद्दी पत्नी की वजह से पिता पलायनवादी बन गया। डाक विभाग में मामूली सी नौकरी करने के बाद सेवानिवृत हुआ। उसे ना तो लड़कियां जवान होते नज़र आईं और ना ही उनका घर बसाने की कभी कोई चिंता की। अब तो ना पैसा था और ना ही बल। उधर घरवाली वैसे ही निठल्ली थी और तबियत से आक्रामक भी। बड़ी लड़की का विवाह हो गया परन्तु कुछ महीनों में ही वह वापस आकर मायके में आकर बैठ गई और एक मानसिक रूप से विक्षिप्त बेटे को जनम दिया।
घर का सहारा थी तो बस दूसरी शिक्षित बेटी ऋद्धिमा जिसे भाग्य ने साथ दिया और खाड़ी में नौकरी मिल गई। वह घर के लिए टकसाल बन गई। प्रायः माता-पिता की अभिलाषा होती है कि लड़की के हाथ जल्दी से पीले हूँ लेकिन यहाँ माजरा उसके उलट था। ऋद्धिमा अपनी तेज़ी से बढ़ती उम्र की अनदेखी करती हुई माता-पिता और बहनों को संभालने में जुट गई यहाँ तक कि उसके बालों में चांदी के तार नज़र आने लगे।
इससे क्या कहिए, माता-पिता की परजीविता या फिर संतान का प्रार्थभाव, मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है।
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