Jahez Ki Karamaat;दहेज का चमत्कार;جہیز کی کرامات
Afsancha;लघु कहानी;افسانچہ
दहेज का चमत्कार
यह उन दिनों की बात है जब मैं अशोक होटल दिल्ली के कश्मीर गवर्नमेंट एम्पोरियम ब्रांच में मैनेजर था। वहां के टेलीफोन एक्सचेंज का इंचार्ज मेरा अच्छा मित्र बन गया। मैं अक्सर उसके पास चाय या कॉफ़ी पीने के लिए चला जाता और बहुत समय तक गप्पें हांकता। विनायक अग्रवाल की काय मध्यम, रंग सावंला,और शरीर मांसल था। परन्तु मिलनसार और मृदुभाषी था।
एक रोज़ उसने मुझे सूचना दी कि दो दिन पहले उसकी मंगनी हो गयी और शादी दुसरे महीने होने वाली है। बातों बातों में यह भी बताया कि उसे तीन लाख रुपए दहेज के तौर पर मिल रहे हैं। उन दिनों लाखों का महत्व उतना ही होता था जितना आज कल करोड़ों का होता है। मुझे आश्चर्य हुआ कि विनायक में ऐसे कौन से सुरखाब के पर लगे हैं जिसके कारण इतना सारा दहेज मिल रहा है।
खैर विवाह हुआ और मैं भी अतिथि के तौर पर सम्मिलित हुआ। उसकी धर्मपत्नी के दर्शन करते ही मेरा दिल धक् से रह गया। मुझे अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया कि अग्रवाल इतने महंगे दामों क्यूँकर बिक गया। उसकी अर्धांग्नी भारी भरकम, श्याम वर्ण और कुछ हद तक कुरूप थी। देखने में वह उसकी माँ जैसी लग रही थी।
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